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कुछ ऐसे हाल-ओ-माज़ी तेरे अफ़्साने भी होते हैं - ज़ेब बरैलवी कविता - Darsaal

कुछ ऐसे हाल-ओ-माज़ी तेरे अफ़्साने भी होते हैं

कुछ ऐसे हाल-ओ-माज़ी तेरे अफ़्साने भी होते हैं

जो हर माहौल-ए-मुस्तक़बिल को दोहराने भी होते हैं

जो एहसास-ए-जवानी की हसीं ख़ल्वत में पलते हैं

वो जल्वे मंज़र-ए-जज़्बात पर लाने भी होते हैं

ख़मोशी दास्ताँ है इस्मत-ए-उन्वान-ए-हस्ती की

ख़मोशी में निहाँ इस्मत के अफ़्साने भी होते हैं

हरीम-ए-दिल में तुझ को काविश-ए-ग़म हम भी पूछेंगे

तसव्वुर में तिरे अक्सर सनम-ख़ाने भी होते हैं

कभी तूफ़ाँ में रुख़ मौजें बदल देती हैं जब अपना

सफ़ीने साहिलों पर ला के टकराने भी होते हैं

अक़ीदत शर्त है ऐ 'ज़ेब' जज़्बात-ए-अक़ीदत की

हरम की राह में ता'मीर बुत-ख़ाने भी होते हैं

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