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इश्क़ की मंज़िल में अब तक रस्म मर जाने की है - ज़ेब बरैलवी कविता - Darsaal

इश्क़ की मंज़िल में अब तक रस्म मर जाने की है

इश्क़ की मंज़िल में अब तक रस्म मर जाने की है

हुस्न की महफ़िल में अब भी ख़ाक परवाने की है

आरज़ू-ए-शौक़ कैफ़-ए-मुस्तक़िल पाने की है

दिल की हर तख़रीब में ता'मीर वीराने की है

मेहर-ए-क़ब्ल-ए-शाम की रफ़्तार मस्ताने की है

मतला-ए-रंग-ए-शफ़क़ में शान मयख़ाने की है

शम-ए-महफ़िल भी नहीं और अहल-ए-महफ़िल भी नहीं

नाज़िश-ए-महफ़िल सहर तक ख़ाक परवाने की है

हो सकेगी किस तरह सर्फ़-ए-क़लम रूदाद-ए-दिल

अब भी ज़ेर-ए-ग़ौर सुर्ख़ी ग़म के अफ़्साने की है

क्या सुकून-ए-कैफ़ दे रंगीन माहौल-ए-क़फ़स

हर घड़ी पेश-ए-नज़र तस्वीर काशाने की है

चंद लम्हों को चले आना मिरे मरने के बा'द

क्या ज़रूरत जीते-जी तकलीफ़ फ़रमाने की है

और क्या होता ज़ियादा इस से एहसास-ए-वफ़ा

शम्अ' के दामन में कोई शर्त परवाने की है

बंदगी मशरूत हो सकती नहीं अहल-ए-नज़र

''इस में कोई शर्त का'बे की न बुत-ख़ाने की है

दास्तान-ए-आरज़ू है नग़्मा-ए-अहद-ए-शबाब

इस की सुर्ख़ी पर ज़रूरत ग़ौर फ़रमाने की है

मर्कज़-ए-अहल-ए-नज़र है 'ज़ेब' नैरंग-ए-ख़्याल

फिर कमी क्यूँ मंज़र-ए-फ़ितरत पे छा जाने की है

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