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गिला नहीं कि किनारों ने साथ छोड़ दिया - ज़ेब बरैलवी कविता - Darsaal

गिला नहीं कि किनारों ने साथ छोड़ दिया

गिला नहीं कि किनारों ने साथ छोड़ दिया

मिरे सफ़ीने का धारों ने साथ छोड़ दिया

रह-ए-हयात में मंज़िल का आसरा कैसा

क़दम क़दम पे ग़ुबारों ने साथ छोड़ दिया

हर एक रुख़ से सजा होता ज़िंदगी को मगर

मैं क्या करूँ कि बहारों ने साथ छोड़ दिया

उदास दिल ने अगर गीत गुनगुनाया भी

शिकस्ता-साज़ के तारों ने साथ छोड़ दिया

सुलग रही है अभी तक वो आग सीने में

लगा के जिस को शरारों ने साथ छोड़ दिया

नज़र-नवाज़ मज़ाक़-ए-नज़र न 'ज़ेब' हुआ

तिरे लतीफ़ इशारों ने साथ छोड़ दिया

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