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नग़्मा के सोज़ से अयाँ दिल का गुदाज़ हो गया - ज़हीर अहमद ताज कविता - Darsaal

नग़्मा के सोज़ से अयाँ दिल का गुदाज़ हो गया

नग़्मा के सोज़ से अयाँ दिल का गुदाज़ हो गया

लाख छुपाया जज़्ब-ए-इश्क़ फ़ाश ये राज़ हो गया

बज़्म में मुश्तहर हुई मेरी हदीस-ए-आरज़ू

शोला-ए-जाँ भड़क उठा नग़मा-ए-साज़ हो गया

फ़ाश न कर सका कोई राज़ तिरे वजूद का

फ़ाश मुझे जो कर दिया फ़ाश ये राज़ हो गया

बंदा-ए-बे-नवा बढ़े जिन्न-ओ-मलक से था अजब

लुत्फ़-ए-करीम का मगर ज़र्रा-नवाज़ हो गया

मेरे गुनाहों से सिवा रहमतें हैं तिरी करीम

लाख ख़ताओं पर भी तू बंदा-नवाज़ हो गया

फ़रहत-ए-बंदगी मिली ताबिश-ए-ज़िंदगी मिली

दिल से जो एक बार मैं महव-ए-नमाज़ हो गया

'ताज' नियाज़-ए-आशिक़ी राज़-ए-नुमूद-ए-हुस्न है

जिस पे ये राज़ खुल गया ख़ुद ही वो राज़ हो गया

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