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मुझ पर सुरूर छा गया बादा-ए-दिल-नवाज़ से - ज़हीर अहमद ताज कविता - Darsaal

मुझ पर सुरूर छा गया बादा-ए-दिल-नवाज़ से

मुझ पर सुरूर छा गया बादा-ए-दिल-नवाज़ से

दुनिया मिरी बदल गई एक निगाह-ए-नाज़ से

आँख में गर न आ सके दिल तो मक़ाम है तिरा

ख़ल्वत-ए-दिल में आ कभी अपने हरीम-ए-नाज़ से

साक़ी-ए-मेहरबाँ पिला बादा-ए-मअ'रिफ़त-असर

मस्त बना के दे ख़बर हुस्न-ए-अज़ल के राज़ से

देख निगाह-ए-शौक़ से हुस्न-ओ-जमाल का जहाँ

जल्वा ही जल्वा चार-सू हुस्न-ए-नज़र-नवाज़ से

जाम-ए-फ़रंग का नशा फ़िक्र-ओ-नज़र की मर्ग है

दिल का भला न हो सका बादा-ए-ख़ूँ-तराज़ से

मुझ को फ़रेब दे गया तुझ को फ़रेब दे गया

ज़हर पिला गया फ़रंग जाम-ए-ज़माना-साज़ से

क़ल्ब-ओ-जिगर भड़क उठे बादा-ए-नौ की आग से

दिल को सकूँ मिला हमें 'ताज' मय-ए-हिजाज़ से

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