क्यूँ वो महबूब रू-ब-रू न रहे

क्यूँ वो महबूब रू-ब-रू न रहे

क्यूँ निगाहों में गुफ़्तुगू न रहे

इश्क़ है मुंतहा-ए-महविय्यत

आरज़ू की भी आरज़ू न रहे

ज़िंदगी ये कि वो तुझे चाहें

मौत है ये कि आबरू न रहे

बंदगी है सुपुर्दगी-ए-तमाम

उन की मर्ज़ी में गुफ़्तुगू न रहे

तुम जो बैठे हो छुप के पर्दों में

चश्म क्यूँ महव-ए-रंग-ओ-बू न रहे

दिल का हर बार है नया आलम

क्यूँ ख़यालों में गुफ़्तुगू न रहे

चश्म-ए-साक़ी हो मेहरबान अगर

ख़्वाहिश-ए-बादा-ओ-सुबू न रहे

आँख वो उस को पा नहीं सकती

ख़ून-ए-दिल से जो बा-वज़ू न रहे

दोस्त से मान 'ताज' वो हस्ती

जिस मैं कुछ फ़र्क़ मा-ओ-तू न रहे

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