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गेसू-ए-शेर-ओ-अदब के पेच सुलझाता हूँ मैं - ज़हीर अहमद ताज कविता - Darsaal

गेसू-ए-शेर-ओ-अदब के पेच सुलझाता हूँ मैं

गेसू-ए-शेर-ओ-अदब के पेच सुलझाता हूँ मैं

ज़ुल्मत-ए-शब में पयाम-ए-सुब्ह-ए-नौ लाता हूँ मैं

बरबत-ए-दिल के मिरे नग़्मे नहीं शोले हैं ये

गर्मी-ए-हसास से दुनिया को गर्माता हूँ मैं

इस जहान-ए-आब-ओ-गिल पर डालता हूँ जब नज़र

ज़िंदगानी को सरासर कश्मकश पाता हूँ मैं

क्यूँ नहीं इंसाँ समझता उन्स को राह-ए-हयात

शम्अ' की मानिंद इस ग़म में घुला जाता हूँ मैं

शोला-ए-उल्फ़त मदद ऐ चारा-साज़-ए-ग़म मदद

सर्द-मेहरी से जहाँ की बुझ के रह जाता हूँ मैं

ये किताब-ए-ज़िंदगी भी चीसताँ से कम नहीं

हर वरक़ में दास्ताँ-दर-दास्ताँ पाता हूँ मैं

क़द्र-दानी की उमीदें कम-निगाही के गिले

आदमी को आदमी से बे-ख़बर पाता हूँ मैं

देखना जूद-ओ-करम उन का ख़ुदाई बख़्श दें

अपना दामन देख कर ऐ 'ताज' शरमाता हूँ मैं

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