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ऐ मिरी जान-ए-आरज़ू माने-ए-इल्तिफ़ात क्या - ज़हीर अहमद ताज कविता - Darsaal

ऐ मिरी जान-ए-आरज़ू माने-ए-इल्तिफ़ात क्या

ऐ मिरी जान-ए-आरज़ू माने-ए-इल्तिफ़ात क्या

होगा न वक़्फ़-ए-दिल कभी कैफ़-ए-तबस्सुमात क्या

मस्त-ए-नज़र अगर नहीं साग़र-ए-दिल में बादा-रेज़

बज़्म-ए-नवाज़िशात क्या दौर-ए-तवज्जोहात क्या

कब से हैं रिंद मुंतज़िर चश्म-ए-करम पे है नज़र

शोख़ निगाह के लिए वज्ह-ए-तकल्लुफ़ात क्या

ढूँडती फिरती है नज़र शाहिद-ए-बज़्म-ए-नाज़ को

उस को मगर ख़बर नहीं कैफ़-ए-तसव्वुरात क्या

हुस्न-ए-तलब ये है कि तू उस से उसी को माँग ले

उस के सिवा हयात क्या मक़्सद-ए-काएनात क्या

अपने ही दिल की बज़्म में उस का जमाल देखिए

दीदा-ए-शौक़ के लिए और हरीम-ए-ज़ात क्या

शौक़-ओ-तलब से 'ताज' अब आलम-ए-इज़्तिराब है

एक ज़रा से दिल में ये शोरिश-ए-काएनात क्या

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