वो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा
वो हर्फ़ जो फ़ज़ा-ए-नील-गूँ की वुसअ'तों में क़ैद था
वो सौत जो जो हिसार-ए-ख़ामुशी में जल्वा-रेज़ थी
सदा जो कोहसार की बुलंदियों पे महव-ए-ख़्वाब थी
रिदा-ए-बर्फ़ से ढकी
वो लफ़्ज़ जो फ़ज़ा के नीले आँचलों से छन के
जज़्ब हो रहा था
रेग-ज़ार-ए-वक़्त में
जो ज़र्रा ज़र्रा मुंतशिर था
धुँदली धुँदली साअ'तों की गर्द में
वो मा'नी-ए-गुरेज़-पा
लरज़ रहा था जो रग-ए-हयात में
वो रम्ज़ मुंतज़िर कि जो अभी निहाँ था
बत्न-ए-काएनात में
वो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा
वो लफ़्ज़ मुंतशिर
वो रम्ज़ मुंतशिर
वो मा'नी-ए-गुरेज़-पा
बस एक जस्त में
हिसार-ए-ख़ामुशी को तोड़ कर
पिघल के मेरे दर्द-ओ-आरज़ू की आँच में
नवा-ओ-नुत्क़ की साअ'तों में ढल गया
वो आबशार-ए-नग़्मा-ओ-नवा
कि कोहसार-ए-सर्द से गिरा
कि गूँजती गुफाओं से उबल पड़ा
वो जू-ए-ज़ात
नग़्मा-ए-हयात
जो रवाँ-दवाँ है बहर-ए-बे-कराँ की खोज में
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