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वो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा - ज़ाहिदा ज़ैदी कविता - Darsaal

वो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा

वो हर्फ़ जो फ़ज़ा-ए-नील-गूँ की वुसअ'तों में क़ैद था

वो सौत जो जो हिसार-ए-ख़ामुशी में जल्वा-रेज़ थी

सदा जो कोहसार की बुलंदियों पे महव-ए-ख़्वाब थी

रिदा-ए-बर्फ़ से ढकी

वो लफ़्ज़ जो फ़ज़ा के नीले आँचलों से छन के

जज़्ब हो रहा था

रेग-ज़ार-ए-वक़्त में

जो ज़र्रा ज़र्रा मुंतशिर था

धुँदली धुँदली साअ'तों की गर्द में

वो मा'नी-ए-गुरेज़-पा

लरज़ रहा था जो रग-ए-हयात में

वो रम्ज़ मुंतज़िर कि जो अभी निहाँ था

बत्न-ए-काएनात में

वो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा

वो लफ़्ज़ मुंतशिर

वो रम्ज़ मुंतशिर

वो मा'नी-ए-गुरेज़-पा

बस एक जस्त में

हिसार-ए-ख़ामुशी को तोड़ कर

पिघल के मेरे दर्द-ओ-आरज़ू की आँच में

नवा-ओ-नुत्क़ की साअ'तों में ढल गया

वो आबशार-ए-नग़्मा-ओ-नवा

कि कोहसार-ए-सर्द से गिरा

कि गूँजती गुफाओं से उबल पड़ा

वो जू-ए-ज़ात

नग़्मा-ए-हयात

जो रवाँ-दवाँ है बहर-ए-बे-कराँ की खोज में

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