जज़्बा-ए-बे-कराना
लुटा दो लुटा दो
ये अफ़्कार-ओ-अनवार का
नीम-ख़ुफ़्ता ख़ज़ाना
उमडते सिमटते
तलातुम से ढालो
कोई दर्द-आगीं फ़साना
मकाँ ला-मकाँ है
ज़माँ बे-कराँ है
निहाँ है
इसी मेहवर-ए-आरज़ू में
तुम्हारे ख़द-ओ-ख़ाल का
अक्स-ए-मौहूम
पर्वाज़ का जज़्बा-ए-बे-कराना
घनी और बे-नूर राहों में
बनाओगी क्या आशियाना
लुटा दो लुंढा दो
बची है जो अब जाम में
ये शराब-ए-शबाना
कि अंजाम-ए-हस्ती
फ़ना के समुंदर में है
डूब जाना
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