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जज़्बा-ए-बे-कराना - ज़ाहिदा ज़ैदी कविता - Darsaal

जज़्बा-ए-बे-कराना

लुटा दो लुटा दो

ये अफ़्कार-ओ-अनवार का

नीम-ख़ुफ़्ता ख़ज़ाना

उमडते सिमटते

तलातुम से ढालो

कोई दर्द-आगीं फ़साना

मकाँ ला-मकाँ है

ज़माँ बे-कराँ है

निहाँ है

इसी मेहवर-ए-आरज़ू में

तुम्हारे ख़द-ओ-ख़ाल का

अक्स-ए-मौहूम

पर्वाज़ का जज़्बा-ए-बे-कराना

घनी और बे-नूर राहों में

बनाओगी क्या आशियाना

लुटा दो लुंढा दो

बची है जो अब जाम में

ये शराब-ए-शबाना

कि अंजाम-ए-हस्ती

फ़ना के समुंदर में है

डूब जाना

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