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सिवा है हद से अब एहसास की गिरानी भी - ज़ाहिदा ज़ैदी कविता - Darsaal

सिवा है हद से अब एहसास की गिरानी भी

सिवा है हद से अब एहसास की गिरानी भी

गिराँ गुज़रने लगी उन की मेहरबानी भी

किस एहतिमाम से पढ़ते रहे सहीफ़ा-ए-ज़ीस्त

चलें कि ख़त्म हुई अब तो वो कहानी भी

लिखो तो ख़ून-ए-जिगर से हवा की लहरों पर

ये दास्ताँ अनोखी भी है पुरानी भी

किसी तरह से भी वो गौहर-ए-तलब न मिला

हज़ार बार लुटाई है ज़िंदगानी भी

हमीं से अंजुमन-ए-इश्क़ मो'तबर ठहरी

हमीं को सौंपी गई ग़म की पासबानी भी

ये क्या अजब कि वही बहर-ए-नीस्ती में गिरी

नफ़्स की मौज में मस्ती भी थी रवानी भी

शुऊर ओ फ़िक्र से आगे है चश्मा-ए-तख़्लीक़

हटेगा संग तो बहने लगेगा पानी भी

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