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मारा हमें इस दौर की आसाँ-तलबी ने - ज़ाहिदा ज़ैदी कविता - Darsaal

मारा हमें इस दौर की आसाँ-तलबी ने

मारा हमें इस दौर की आसाँ-तलबी ने

कुछ और थे इस दौर में जीने के क़रीने

हर जाम लहू-रंग था देखा ये सभी ने

क्यूँ शीशा-ए-दिल चूर था पूछा न किसी ने

अब हल्क़ा-ए-गिर्दाब ही आग़ोश-ए-सुकूँ है

साहिल से बहुत दूर डुबोए हैं सफ़ीने

हर लम्हा-ए-ख़ामोश था इक दौर-ए-पुर-आशोब

गुज़रे हैं इसी तौर से साल और महीने

माज़ी के मज़ारों की तरफ़ सोच के बढ़ना

हो जाओगे मायूस न खो दो ये दफ़ीने

हर बज़्म-ए-सुख़न झूटे नगीनों की नुमाइश

सरताज-ए-सुख़न थे जो कहाँ हैं वो नगीने

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