शामिल न होते हुस्न के जल्वे अगर 'कमाल'
होता कहाँ ये नूर शब-ए-माहताब में
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कहना पड़ा उन्हीं को मसीहा-ए-वक़्त भी
अफ़्साना-ए-हयात बनी फूल बन गई
जब तक तुम्हारा हुस्न नुमायाँ न हो सका
हो गए अम्बर-फ़शाँ दोनों-जहाँ मेरे लिए