जब तक तुम्हारा हुस्न नुमायाँ न हो सका
रौशन चराग़-ए-आलम-ए-इम्कान न हो सका
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हो गए अम्बर-फ़शाँ दोनों-जहाँ मेरे लिए
कहना पड़ा उन्हीं को मसीहा-ए-वक़्त भी
अफ़्साना-ए-हयात बनी फूल बन गई
शामिल न होते हुस्न के जल्वे अगर 'कमाल'