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नश्र मुकर्रर - ज़ाहिद मसूद कविता - Darsaal

नश्र मुकर्रर

वो शाम

जब सड़कें गुल-ए-सुर्ख़ से भरी हुईं थीं

ऐवान-ए-इंसाफ़ पर अंधेरा उतर रहा था

मैं ने

गर्दन और कानों को कोट के लम्बे कॉलर में छुपा लिया

ताकि

बाक़ी-माँदा लहू की गर्दिश चेहरे तक न आ सके

अबाबीलें

अपने मस्कनों से दीवाना-वार निकल आईं

और

गुम्बदों में बोलने वाले कबूतरों ने चुप-चाप

अपनी चोंचें

ख़ामोश तालाब में डुबो दीं

वो शाम

जब खिड़कियों में सब चेहरे एक जैसे नज़र आने लगें

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