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तज़ाद की काश्त - ज़ाहिद इमरोज़ कविता - Darsaal

तज़ाद की काश्त

मैं ने कई रंग के साए सूँघे हैं

मगर दीवारों पर कंदा किए फूलों में

कभी ख़ुश्बू नहीं महकी

मोहब्बत रूह में तब उतरती है

जब ग़मों की रेत और आँसुओं से

हम अपने अंदर शिकस्तगी तामीर करते हैं

जिस क़दर भी हँस लो

नजात का कोई रास्ता नहीं

तुम मोहब्बत के गुनहगार हो

सौ ग़म तुम्हारी हड्डियों में फैला हुआ है

अपने अमीक़ तजरबे से बताओ

एक मोहब्बत मापने के लिए

हमें दूसरी मोहब्बत क्यूँ तलाशना पड़ती है

मैं जमा हो कर कम पड़ गया हूँ

कहीं ऐसा तो नहीं

इर्तिक़ा की जल्द-बाज़ी में

मैं ने दो नफ़ी जोड़ लिए हैं

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