तज़ाद की काश्त
मैं ने कई रंग के साए सूँघे हैं
मगर दीवारों पर कंदा किए फूलों में
कभी ख़ुश्बू नहीं महकी
मोहब्बत रूह में तब उतरती है
जब ग़मों की रेत और आँसुओं से
हम अपने अंदर शिकस्तगी तामीर करते हैं
जिस क़दर भी हँस लो
नजात का कोई रास्ता नहीं
तुम मोहब्बत के गुनहगार हो
सौ ग़म तुम्हारी हड्डियों में फैला हुआ है
अपने अमीक़ तजरबे से बताओ
एक मोहब्बत मापने के लिए
हमें दूसरी मोहब्बत क्यूँ तलाशना पड़ती है
मैं जमा हो कर कम पड़ गया हूँ
कहीं ऐसा तो नहीं
इर्तिक़ा की जल्द-बाज़ी में
मैं ने दो नफ़ी जोड़ लिए हैं
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