मेरा कोई दोस्त नहीं

चीख़ें मुझे कभी रिहा नहीं करतीं

मुझे मालूम है

हर मंज़र में एक चीख़ छुपी है

मैं जहाँ भी जाता हूँ

कोई न कोई चीख़ मुझे पहचान लेती है

मैं अपनी ख़ामोशी की मुख़ालिफ़ सम्त

ख़ौफ़-ज़दा हो कर भागने लगता हूँ

इसी बौखलाहट में चीख़ों के कई झुण्ड

मुझे भिड़ों की तरह घेर लेते हैं

भागते हुए मैं क़ब्रिस्तान में पहुँच जाता हूँ

जहाँ हर क़ब्र में एक चीख़ दफ़्न है

मुझे देख कर

चीख़ें मेरे गिर्द हवा में तैरने लगी हैं

और मुझ से चीख़ बन जाने का मुतालबा करती हैं

बक़ा की जंग लड़ते हुए

अब मेरे हाथ बाज़ुओं से गिरने वाले हैं

और हारने के लिए मेरा कोई दोस्त नहीं

मैं महसूस कर रहा हूँ

मेरा चीख़ों से बंधा हुआ जिस्म

जब गूँजने के क़रीब होगा

मैं किसी ख़ुश्क दरिया के किनारे

सुर्ख़ रंग में लुथड़ी चीख़ बना लूँगा

और मिट्टी मेरी क़ब्र बनाने में मसरूफ़ होगी

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