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मेरा ग़ुस्सा कहाँ है? - ज़ाहिद इमरोज़ कविता - Darsaal

मेरा ग़ुस्सा कहाँ है?

मैं आसमान के साथ फैली शाम की नारंजी रौशनी हूँ

या सूरज की आँख में रेंगती सुर्ख़ धार?

क्या है मेरा वजूद?

यौम-ए-ईद क़ुर्बान होती भेड़ों का सब्र

या हीरों के तआक़ुब में कोएला कोएला फिरती ख़्वाहिश?

मैं सरमा में अबाबीलों की मुरझाई रूह हूँ

या सरमस्त दरख़्तों की चोटियों में मदहोश हवा?

हाँ...... मैं रात की झिलमिलाती रौशनियों के पीछे

उलझी आलूदा शिकन हूँ

बच्चा जन्ती माँ की आख़िरी चीख़ मेरी मोहब्बत है

मैं राह-गीरों की ला-परवाह ख़ुशी में

सहमा ख़ौफ़ हूँ

मैं गौतम के मुस्कुराते रुख़्सारों का लम्स हूँ

सातवें आसमान पर ग़ोता-ज़न परिंदे

अगर मेरी पुर-सुकून रूह में पर्वाज़ करते हैं

तो फिर ये कैसा बोझ है

जो तुम्हारे छोड़ जाने के ब'अद

इस ग़ुबार-आलूद सीने में जमने लगा है?

लेकिन मेरा ग़ुस्सा किस शेर के बदन में झरझराता है?

मेरी आग किस उक़ाब की आँखों में कपकपाती है?

जिसे तुम्हारी हँसी तुम्हारे मक्कार दिल

और तुम्हारी धोके-बाज़ नाफ़ में उंडेल सकूँ!

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