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एक अवामी नज़्म - ज़ाहिद इमरोज़ कविता - Darsaal

एक अवामी नज़्म

हम ख़ाली पेट सरहद पर

हाथों की अम्न ज़ंजीर नहीं बना सकते

भूक हमारी रातें ख़ुश्क कर देती है

आँसू कभी प्यास नहीं बुझाते

रजज़ क़ौमी तराना बन जाए

तो ज़रख़ेज़ी क़हत उगाने लगती है

बच्चे माँ की छातियों से

ख़ून चूसने लगते हैं

कोई चेहरों पे परचम नहीं बनाता

और यौम-ए-आज़ादी पर लोग

फुल-झड़ियाँ नहीं अपनी ख़ुशियाँ जलाते हैं

फ़ौज कभी नग़्मे नहीं गुनगुना सकती

कि सिपाही खेतियाँ उजाड़ने वाले

ख़ुद-कार औज़ार होते हैं

क्या फूल नौ-बियाहता औरत के बालों

और बच्चों के लिबास पर ही जचता है

काश

वतन की हद हुदूद के तअय्युन के लिए

फूलों की कियारियाँ

आहिनी-तारों का मुतबादिल होतीं

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