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उसी की धुन में कहीं नक़्श पा गया है मिरा - ज़ाहिद फ़ारानी कविता - Darsaal

उसी की धुन में कहीं नक़्श पा गया है मिरा

उसी की धुन में कहीं नक़्श पा गया है मिरा

जो आ के ख़्वाब में दर खटखटा गया है मिरा

गुज़र गया है जो पहलू बचा के मुझ से तो क्या

नज़र झुका के वो घर देखता गया है मिरा

हूँ मुज़्तरिब तिरी गुम-गश्ता आरज़ू के लिए

दुकान-ए-दिल से दुर-ए-बे-बहा गया है मिरा

असीर-ए-गुम्बद-ए-बे-दर पड़ा हूँ मुद्दत से

मिरे ही दिल पे वो पहरा बिठा गया है मिरा

क़दम क़दम पे दयार-ए-वफ़ा के रस्ते में

मिरी ज़बाँ से फ़साना सुना गया है मिरा

मुहीत है मिरे दीवार-ओ-दर पे तन्हाई

न जाने कौन इसे घर बता गया है मिरा

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