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जहान-ए-तंग में तन्हा हुआ मैं - ज़ाहिद फ़ारानी कविता - Darsaal

जहान-ए-तंग में तन्हा हुआ मैं

जहान-ए-तंग में तन्हा हुआ मैं

बहुत अच्छा हुआ रुस्वा हुआ मैं

मिरी आँखों का पहचाना हुआ तू

निगाह-ए-दहर का देखा हुआ मैं

उभर आई हवा की मौज सर में

हरीफ़-ए-मौजा-ए-दरिया हुआ मैं

जबीन-ए-आब की तहरीर दुनिया

हुरूफ़-ए-संग से लिक्खा हुआ मैं

फ़ना के हाथ में मेरी बक़ा है

ख़ुद अपनी ख़ाक से पैदा हुआ मैं

हुई वाबस्ता मुझ से तुर्श-रुई

कि नश्शा हूँ मगर उतरा हुआ मैं

छुपा हूँ आज तक उस की नज़र से

ज़माने भर पे आईना हुआ मैं

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