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मैं कि अफ़्सुर्दा मकानों में रहूँ - ज़ाहिद फख़री कविता - Darsaal

मैं कि अफ़्सुर्दा मकानों में रहूँ

मैं कि अफ़्सुर्दा मकानों में रहूँ

आज भी गुज़रे ज़मानों में रहूँ

रात है सर पर कोई सूरज नहीं

किस लिए फिर साएबानों में रहूँ

क्या वसीला हो मिरे इज़हार का

लफ़्ज़ हूँ गूँगी ज़बानों में रहूँ

कौन देखेगा यहाँ ताक़त मिरी

तीर हूँ टूटी कमानों में रहूँ

भेड़िये हैं चार-सू बिफरे हुए

नीचे उतरूँ या मचानों में रहूँ

मेरे होने का हो कुछ तो फ़ाएदा

हूँ हवा तो बादबानों में रहूँ

राब्ता रख्खूँ ज़मीनों से मगर

आसमानों की उड़ानों में रहूँ

ये भी क्या 'फ़ख़री' कि पुर्ज़ों की तरह

रात दिन मैं कार-ख़ानों में रहूँ

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Main Ki Afsurda Makanon Mein Rahun In Hindi By Famous Poet Zahid Fakhri. Main Ki Afsurda Makanon Mein Rahun is written by Zahid Fakhri. Complete Poem Main Ki Afsurda Makanon Mein Rahun in Hindi by Zahid Fakhri. Download free Main Ki Afsurda Makanon Mein Rahun Poem for Youth in PDF. Main Ki Afsurda Makanon Mein Rahun is a Poem on Inspiration for young students. Share Main Ki Afsurda Makanon Mein Rahun with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.