नज़्म
एक तो ख़्वाब डराते हैं मुझे
धूप में ज़र्द दरख़्तों पे खिले काले फूल
पहले पानी था जहाँ धूल वहाँ उड़ती है
मैं ने औरत को नहीं देखा था
उस का पैग़ाम मिला बारिश में
वो मिरे पास जब आई थी तो मैं तन्हा था
और इस पहली मुलाक़ात की हैरानी में
आज भी ग़र्क़ हूँ मैं
लोग जिस वहम में हैं मैं भी हूँ
है मगर उस को मोहब्बत मुझ से
वर्ना क्यूँ ख़्वाब डराते हैं मुझे
धूप में झुलसी हुई सड़कों पर
अब नहीं चलने का यारा मुझ में
रात दिन सड़कों पे आवारा फिरा करता था
और इतना भी न सोचा था कभी
किस से मिलने की तमन्ना में थी वो बेचैनी
जब से देखा है उसे चारों तरफ़
एक ख़ामोशी का मंज़र है सकूँ तारी है
सिर्फ़ इतना है कि अब ख़्वाब डराते हैं मुझे
पहले दुनिया में कहीं ख़ौफ़ न था
ख़्वाहिशें जागीं तो ये ख़ौफ़ भी बेदार हुए
धूप निकली तो नज़र आने लगे फूल ही फूल
अन-गिनत रास्ते औरत ने दिखाए मुझ को
शहर की जलती झुलसती हुई सड़कों से अलग
रास्ते जिन पे मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं
उस की आवाज़ हवाओं की जगह
उस की आवाज़ परिंदों की जगह
उस की आवाज़ सितारों की जगह
आसमाँ वो है समुंदर वो है
कुछ भी मौजूद नहीं उस की मोहब्बत के सिवा
जब उसे देखता हूँ मुझ को नज़र आते हैं
सैकड़ों चाँद हज़ारों सूरज
हर तरफ़ रौशनियाँ रौशनियाँ रौशनियाँ
ज़िंदगी पहले कभी ऐसी दिल-आवेज़ न थी
एक इक लम्हा है सदियों का सफ़र
कभी जंगल में कभी पर्बत पर
कभी सहराओं में
कभी वीरान ख़लाओं का सफ़र
वक़्त की वुसअतें ठहरे हुए इक लम्हे में
क़ैद हैं लम्हा मगर फैलता ही जाता है
और अब ख़्वाब डराते हैं मुझे
और मैं सोचता हूँ
जाने किस ख़्वाब में किस ख़्वाब ने किस ख़्वाब को देखा होगा
लोग जिस वहम में हैं मैं भी हूँ
एक औरत का ख़याल.....
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