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वो बहर-ओ-बर में नहीं और न आसमाँ में है - ज़ाहिद चौधरी कविता - Darsaal

वो बहर-ओ-बर में नहीं और न आसमाँ में है

वो बहर-ओ-बर में नहीं और न आसमाँ में है

जो राज़-ए-ज़ीस्त मिरे शौक़-ए-बेकराँ में है

मुझे क़रार ब-जुज़ शौक़-ए-बे-क़रार नहीं

सुकून-ए-ज़ीस्त मुझे शोख़ी-ए-बुताँ में है

मुझे क़ुबूल नहीं ऐसा राज़-ए-सर-बस्ता

जो चश्म-ए-अक़्ल से पोशीदा ला-मकाँ में है

मिरी हयात फ़क़त जुस्तुजू-ए-पैहम है

मिरा मक़ाम सितारों के कारवाँ में है

मैं आसमाँ में सितारों की सैर करता हूँ

ये क्या सुरूर तिरे संग-ए-आस्ताँ में है

मिरे वजूद में पिन्हाँ है गौहर-ए-यकता

मिरा वजूद निहाँ बहर-ए-बे-कराँ में है

चमन में जबकि नशेमन बना चुका हूँ मैं

अजब तरह की चमक चश्म-ए-आसमाँ में है

मिरे कलाम से आया है बर्ग-ए-गुल पे निखार

मिरे नफ़स की महक सारे गुलिस्ताँ में है

वो लुत्फ़-ए-ज़ीस्त जो है तुंद-ओ-तेज़ तूफ़ाँ में

वो शाख़-ए-गुल पे नहीं और न आशियाँ में है

वो सोज़-ओ-साज़-ए-हक़ीक़त से आश्ना होगी

वो ज़िंदगी जो हमा-वक़्त इम्तिहाँ में है

हर एक लहज़ा है इक ताज़ा वलवला दरकार

अजब तरह का मज़ा बहर-ए-बे-कराँ में है

वो मेरी क़ुव्वत-ए-ईमाँ की इक अलामत है

जो शोर-ए-हश्र बपा बज़्म-ए-दुश्मनाँ में है

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