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नहीं ये रस्म-ए-मोहब्बत कि इश्तिबाह करो - ज़ाहिद चौधरी कविता - Darsaal

नहीं ये रस्म-ए-मोहब्बत कि इश्तिबाह करो

नहीं ये रस्म-ए-मोहब्बत कि इश्तिबाह करो

किया है इश्क़ तो हर हाल में निबाह करो

नहीं है इश्क़ तो फिर ज़िंदगी में कुछ भी नहीं

किसी से इश्क़ करो और बे-पनाह करो

करूँगा मैं तिरी महफ़िल की रौनक़ें दो-चंद

मेरी तरफ़ भी अगर लुत्फ़ की निगाह करो

सुना है सैर-ए-चमन को वो आ रहे हैं आज

जुनून-ए-शौक़ को बर-वक़्त इंतिबाह करो

शिआ'र-ए-हुस्न की तौक़ीर का तक़ाज़ा है

मरीज़-ए-इश्क़ से तजदीद-ए-रस्म-ओ-राह करो

मिरी तरह न रहो आलम-ए-तख़य्युल में

मिरी तरह न भरी ज़िंदगी तबाह करो

अगर मक़ाम है मतलूब बज़्म-ए-उल्फ़त में

ग़म-ए-फ़िराक़ की शिद्दत में ज़ब्त-ए-आह करो

जहाँ में रस्म-ए-सितम नंग-ए-आदमियत है

सितम के दौर की हर चीज़ को तबाह करो

नमाज़-ए-दीद के अंजाम पर मुझे दिल का

ये मशवरा है कि अब तौफ़-ए-जलवा-गाह करो

जनाब-ए-शैख़ को देखा है मैं ने ख़ल्वत में

अगर यही है शराफ़त तो फिर गुनाह करो

शिआ'र-ए-मक्र-ओ-रिया मौलवी से मत सीखो

न अपने नामा-ए-आमाल को सियाह करो

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