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जब आशिक़ी में मेरा कोई राज़-दाँ नहीं - ज़ाहिद चौधरी कविता - Darsaal

जब आशिक़ी में मेरा कोई राज़-दाँ नहीं

जब आशिक़ी में मेरा कोई राज़-दाँ नहीं

ऐसी लगी है आग कि जिस का धुआँ नहीं

गो मैं शरीक-ए-बज़्म सर-ए-आसमाँ नहीं

वो राज़ कौन सा है जो मुझ पर अयाँ नहीं

मैं सोचता हूँ ज़ीस्त में नाकाम हो गया

मेरे ख़ुलूस-ए-शौक़ का जब इम्तिहाँ नहीं

मेरा मक़ाम इश्क़-ए-बुताँ में है बे-मिसाल

गो मैं रहीन-ए-मिन्नत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं

वो आशिक़ी नहीं है कोई कारोबार है

जिस आशिक़ी में गर्मी-ए-सोज़-ए-निहाँ नहीं

मैं सोज़-ओ-साज़-ए-शौक़ में हद से गुज़र गया

अब इस सफ़र में मेरा कोई कारवाँ नहीं

मेरी नवा-ए-ग़म में है शामिल फ़ुग़ान-ए-गुल

कैसे कहूँ चमन में कोई हम-ज़बाँ नहीं

मा'मूर हो गया है वो सोज़-ए-हयात से

जो मुब्तला-ए-गर्दिश-ए-कौन-ओ-मकाँ नहीं

शौक़-ए-सफ़र में वलवला-ए-दिल नहीं रहा

दुश्मन रह-ए-हयात में जब आसमाँ नहीं

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