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गो मुब्तला-ए-गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर हूँ मैं - ज़ाहिद चौधरी कविता - Darsaal

गो मुब्तला-ए-गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर हूँ मैं

गो मुब्तला-ए-गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर हूँ मैं

फिर भी दयार-ए-इश्क़ में चीज़-ए-दिगर हूँ मैं

मैं चाहता हूँ जिस को वो दिलबर तुम ही तो हो

तुम ढूँडते हो जिस को वो अहल-ए-नज़र हूँ मैं

पीर-ए-हरम का क़ौल है मैं शब-गज़ीदा हूँ

पीर-ए-मुग़ाँ की राय में नूर-ए-सहर हूँ मैं

अहल-ए-चमन की कश्मकश-ए-रोज़गार की

तारीकी-ए-हयात में मिस्ल-ए-क़मर हूँ मैं

रौशन मिरे वजूद से सर्व-ओ-समन हुए

सेहन-ए-चमन के वास्ते नूर-ए-सहर हूँ मैं

मैं मानता नहीं कि वो ग़फ़लत-शिआ'र है

रस्म-ए-वफ़ा के ज़ेर-ए-असर किस क़दर हूँ मैं

उम्मीद कर रहा हूँ मैं तकमील-ए-शौक़ की

किस को बताऊँ किस क़दर आशुफ़्ता-सर हूँ मैं

गो मैं रह-ए-हयात में बे-दस्त-ओ-पा हुआ

फिर भी मुहीत-ए-इश्क़ में महव-ए-सफ़र हूँ मैं

मेरा मुक़ाबला नहीं परवाज़-ए-फ़िक्र में

हालाँकि जोश-ए-इश्क़ में बे-बाल-ओ-पर हूँ मैं

अर्ज़-ओ-समा के राज़-ए-दरूँ से हूँ आश्ना

गोया शरीक-ए-महफ़िल-ए-शम्स-ओ-क़मर हूँ मैं

मुझ को ख़बर है क्या है पस-ए-पर्दा-ए-नमाज़

गो शैख़ का ख़याल है कि बे-ख़बर हूँ मैं

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