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चला हूँ घर से मैं अहवाल-ए-दिल सुनाने को - ज़ाहिद चौधरी कविता - Darsaal

चला हूँ घर से मैं अहवाल-ए-दिल सुनाने को

चला हूँ घर से मैं अहवाल-ए-दिल सुनाने को

वो मुंतज़िर हैं मिरा ज़ब्त आज़माने को

रक़ीब साथ है और ज़ेर-ए-लब तबस्सुम है

अजब तरह से वो आया है दिल दुखाने को

अगरचे बज़्म-ए-तरब में हवस का ग़लबा है

मैं आ गया हूँ मोहब्बत के गीत गाने को

मैं जा रहा हूँ वहाँ जबकि अज़-रह-ए-तफ़रीह

सजी है बज़्म मिरा शौक़ आज़माने को

रविश रविश में है अफ़्सुर्दगी की अफ़्ज़ाइश

वो फिर भी निकले हैं तफ़रीह-ए-गुल मनाने को

जुनून-ए-इश्क़ मिरा जबकि इक हक़ीक़त है

अलग करूँगा मैं इस इश्क़ से फ़साने को

मैं चाहता था मिरा इश्क़ एक राज़ रहे

वो आ गया तो ख़बर हो गई ज़माने को

वो जिन से मुझ को तवक़्क़ो थी पासबानी की

वो आ गए हैं मिरा आशियाँ जलाने को

जनाब-ए-शैख़ की ये वो रुख़ी मआज़-अल्लाह

हुई है शब तो चले हैं शराब-ख़ाने को

रह-ए-हयात में बहरूपियों से वाक़िफ़ हूँ

जो ग़म-गुसार बने मेरा दिल दुखाने को

जो बे-ख़बर हैं सरापा वो फिर रहे हैं आज

क़दम क़दम पे नई दास्ताँ सुनाने को

जिधर निगाह उठाओ रवाँ है ख़ून-ए-जिगर

ख़बर नहीं कि ये क्या हो गया ज़माने को

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