ज़र्रे ज़र्रे में बिखर जाना है तकमील-ए-हयात
मुझ को ये ज़ेबा नहीं अब ज़ात में सिमटा रहूँ
Ahmad Faraz
Habib Jalib
Anwar Masood
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Gulzar
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Wasi Shah
Rahat Indori
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1080) Peoples Rate This
वजूद उस का कभी भी न लुक़्मा-ए-तर था
हर गुल-ए-ताज़ा हमारे हाथ पर बैअत करे
सूखे हुए पत्तों में आवाज़ की ख़ुशबू है
जैसे जैसे आगही बढ़ती गई वैसे 'ज़हीर'
जो हौसला हो तो हल्की है दोपहर की धूप
दर्द तो ज़ख़्म की पट्टी के हटाने से उठा
मकीन ही अजीब हैं
इतने चेहरों में मुझे है एक चेहरे की तलाश
ज़ख़्म-ए-ताज़ा बर्ग-ए-गुल में मुंतक़िल होते गए
पस्पाई
असीर-ए-ज़ात-ए-रौशनी
बे-बर्ग-ओ-बार राह में सूखे दरख़्त थे