उस के अल्फ़ाज़-ए-तसल्ली ने रुलाया मुझ को
कुछ ज़ियादा ही धुआँ आग बुझाने से उठा
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हर गुल-ए-ताज़ा हमारे हाथ पर बैअत करे
ज़र्रे ज़र्रे में बिखर जाना है तकमील-ए-हयात
पस्पाई
वजूद उस का कभी भी न लुक़्मा-ए-तर था
जैसे जैसे आगही बढ़ती गई वैसे 'ज़हीर'
चंद मोहमल सी लकीरें ही सही इफ़्शा रहूँ
मकीन ही अजीब हैं
इतने चेहरों में मुझे है एक चेहरे की तलाश
ख़्वाब-गाहों से अज़ान-ए-फ़ज्र टकराती रही
बे-बर्ग-ओ-बार राह में सूखे दरख़्त थे
हाँ वो मैं ही था कि जिस ने ख़्वाब ढोया सुब्ह तक
जो हौसला हो तो हल्की है दोपहर की धूप