इतने चेहरों में मुझे है एक चेहरे की तलाश
जिस को मैं ने खो के पाया पा के खोया सुब्ह तक
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बे-बर्ग-ओ-बार राह में सूखे दरख़्त थे
ज़ख़्म-ए-ताज़ा बर्ग-ए-गुल में मुंतक़िल होते गए
सूखे हुए पत्तों में आवाज़ की ख़ुशबू है
चंद मोहमल सी लकीरें ही सही इफ़्शा रहूँ
ख़्वाब-गाहों से अज़ान-ए-फ़ज्र टकराती रही
ज़र्रे ज़र्रे में बिखर जाना है तकमील-ए-हयात
दर्द तो ज़ख़्म की पट्टी के हटाने से उठा
वजूद उस का कभी भी न लुक़्मा-ए-तर था
असीर-ए-ज़ात-ए-रौशनी
न जाने हम से गिला क्यूँ है तिश्ना-कामों को
जैसे जैसे आगही बढ़ती गई वैसे 'ज़हीर'