असीर-ए-ज़ात-ए-रौशनी
न लज़्ज़तों का बहर था न ख़्वाहिशों की वादियाँ
न दाएरे अज़ाब के न ज़ाविए सवाब के
बस एक रौशनी असीर-ए-ज़ात थी
मुहीत काएनात थी अज़ल से बे-लिबास थी
तो यूँ हुआ कि दफ़अ'तन
मिरे बदन के पैरहन में छुप गई
तो लज़्ज़तों का बहर मौज-ज़न हुआ
तो ख़्वाहिशों की वादियाँ सुलग गईं
तो दाएरे अज़ाब के फिसल गए
तो ज़ाविए सवाब के मचल गए
अजीब वाक़िआ' नहीं
मिरे बदन का पैरहन तो लज़्ज़तों के तार में बुना गया
वो ख़्वाहिशों के बहर में जो मौज मौज बह गया
तो क्या हुआ
ये राज़ राज़ रह गया
वो रौशनी जो क़ब्ल-ए-इर्तिकाब ही
मिरे बदन के पैरहन में जागुज़ीँ थी
सद-इर्तिकाब क्यूँ हुई नहीं
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