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सूखे हुए पत्तों में आवाज़ की ख़ुशबू है - ज़हीर सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

सूखे हुए पत्तों में आवाज़ की ख़ुशबू है

सूखे हुए पत्तों में आवाज़ की ख़ुशबू है

अल्फ़ाज़ के सहरा में तख़ईल का आहू है

जाते हुए सूरज की इक तिरछी नज़र ही थी

तब शर्म का सिंदूर था अब हिज्र का गेसू है

मसहूर फ़ज़ा क्यूँ है मजबूर सबा क्यूँ है

रंगों के हिसारों में नग़्मात का जादू है

मौजों से उलझना क्या तूफ़ान से गुज़रना क्या

हर डूबने वाले को एहसास-ए-लब-ए-जू है

इस दौर-ए-ख़िरद में भी ऐ काश ये मुमकिन हो

तू सोचे कि बस मैं हूँ मैं समझूँ कि बस तू है

कब आँख झपक जाए तस्वीर बदल जाए

हर लम्हा सुबुक-रौ है हर जल्वा तुनुक-ख़ू है

बाज़ार-ए-तमन्ना की हर चीज़ ही नाज़ुक है

अजनास-ए-ग़म-ए-दिल हैं पलकों की तराज़ू है

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