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जो हौसला हो तो हल्की है दोपहर की धूप - ज़हीर सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

जो हौसला हो तो हल्की है दोपहर की धूप

जो हौसला हो तो हल्की है दोपहर की धूप

तुनक-मिज़ाजों को लगती है यूँ क़मर की धूप

मिरे जुनून-ए-क़दम ने बड़ा ही काम किया

जो गर्द-ए-राह बढ़ी कम हुई सफ़र की धूप

सफा-ए-शीशा-ए-आरिज़ पे खुल गई है शफ़क़

जो उन के रुख़ पे पड़ी है मिरी नज़र की धूप

शब-ए-विसाल की ये शाम भी है रश्क-ए-सहर

महक महक के सरकती है बाम-ओ-दर की धूप

बुझी तो गौहर-ए-मिज़्गान-ए-यार में चमकी

खुशा-नसीब मिरी उम्र-ए-मुख़्तसर की धूप

अभी से शिकवा-ए-हिद्दत अभी तपिश का गिला

अभी तो तेरे मुक़ाबिल हुई सहर की धूप

'ज़हीर' तेरी जबीं क्यूँ अरक़ अरक़ है अभी

अभी तो राह में बाक़ी है दोपहर की धूप

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