हर गुल-ए-ताज़ा हमारे हाथ पर बैअत करे
हर गुल-ए-ताज़ा हमारे हाथ पर बैअत करे
उस की ज़ुल्फ़ों तक पहुँचने के लिए मिन्नत करे
दिल बचाए या सराहे आतिश-ए-रुख़्सार को
जिस का घर जलता हो वो शोलों की क्या मिदहत करे
आम के फूलों को ख़ुद ही झाड़ दे और इस के ब'अद
बे-समर शाख़ों से आवारा हवा हुज्जत करे
शहर वालों को भी हाजत है अनाजों की मगर
ख़ुश-लिबासी मौसम-ए-बरसात पर ल'अनत करे
यूँ बहाने से छुपा लूँ अपने अश्कों को मगर
आँख की सुर्ख़ी दिल-ए-पुर-दर्द की ग़ीबत करे
ख़ून के दो चार क़तरे दिल में हैं बाक़ी 'ज़हीर'
दश्ना-ए-मिज़्गाँ से कह दो इक ज़रा ज़हमत करे
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