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ये कारोबार-ए-चमन इस ने जब सँभाला है - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

ये कारोबार-ए-चमन इस ने जब सँभाला है

ये कारोबार-ए-चमन इस ने जब सँभाला है

फ़ज़ा में लाला-ओ-गुल का लहू उछाला है

हमें ख़बर है कि हम हैं चराग़-ए-आख़िर-ए-शब

हमारे बाद अंधेरा नहीं उजाला है

हुजूम-ए-गुल में चहकते हुए समन-पोशू

ज़मीन-ए-सेहन-ए-चमन आज भी ज्वाला है

हमारे इश्क़ से दर्द-ए-जहाँ इबारत है

हमारा इश्क़ हवस से बुलंद-ओ-बाला है

सुना है आज के दिन ज़िंदगी शहीद हुई

इसी ख़ुशी में हर इक सम्त दीप-माला है

ज़हीर हम को ये अहद-ए-बहार रास नहीं

हर एक फूल के सीने पर एक छाला है

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