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वो महफ़िलें वो मिस्र के बाज़ार क्या हुए - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

वो महफ़िलें वो मिस्र के बाज़ार क्या हुए

वो महफ़िलें वो मिस्र के बाज़ार क्या हुए

ऐ शहर-ए-दिल तिरे दर-ओ-दीवार क्या हुए

डसने लगी हैं हम को ज़माने की रौनक़ें

हम जुर्म-ए-आशिक़ी के सज़ा-वार क्या हुए

इतनी गुरेज़-पा तो न थी उम्र-ए-दोस्ती

ऐ ख़ंदा-ए-ख़फ़ी तिरे इक़रार क्या हुए

फूलों ने बढ़ के पाँव में ज़ंजीर डाल दी

वारफ़्तगी में माइल-ए-गुलज़ार क्या हुए

जिन का जमाल जन्नत-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र रहा

वो हम-नशीं वो यार-ए-तरह-दार क्या हुए

हम इस तरह तो यूसुफ़-ए-बे-कारवाँ न थे

ऐ दिल तू ही बता तिरे ग़म-ख़्वार क्या हुए

उम्मीद-ए-वस्ल-ए-यार में शब काट दी तो क्या

दिन ढल गया तो नींद से बेदार क्या हुए

आने से उन के डूबती नब्ज़ें सँभल गईं

आसान मरहले मिरे दुश्वार क्या हुए

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