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तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है

तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है

ना-शनासा है तो फिर महरम-ए-पिन्हाँ क्यूँ है

हिज्र के दौर में हर दौर को शामिल कर लें

इस में शामिल यही इक उम्र-ए-गुरेज़ाँ क्यूँ है

आज की शब तो बुझा रक्खे हैं यादों के चराग़

आज की शब मिरी पलकों पे चराग़ाँ क्यूँ है

और भी लोग हैं मौजूद बयाबानों में

दस्त-ए-वहशत में फ़क़त मेरा गिरेबाँ क्यूँ है

दिल तो मुद्दत से कड़ी धूप में जलता है 'ज़हीर'

आग बरसाता हुआ अब्र-ए-बहाराँ क्यूँ है

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