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मुज़्महिल होने पे भी ख़ुद को जवाँ रखते हैं हम - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

मुज़्महिल होने पे भी ख़ुद को जवाँ रखते हैं हम

मुज़्महिल होने पे भी ख़ुद को जवाँ रखते हैं हम

एक सर है जिस पे सातों आसमाँ रखते हैं हम

हम गरेबाँ-चाक लोगों को तही-दामन न जान

ले क़िमार-ए-आशिक़ी में नक़्द-ए-जाँ रखते हैं हम

कोई तो आख़िर चला आएगा पुर्सिश के लिए

तू न आएगा तो मर्ग-ए-ना-गहाँ रखते हैं हम

एहतिराम-ए-ग़म से हैं सूखे जज़ीरों की तरह

वर्ना इन आँखों में बहर-ए-बे-कराँ रखते हैं हम

इश्क़ में ज़ौक़-ए-तकल्लुम है हलाकत-आफ़रीं

आरज़ू भी एहतियातन बे-ज़बाँ रखते हैं हम

मह-वशों के आरिज़ों में देखते हैं अपना अक्स

अल्लाह अल्लाह अपना साया भी कहाँ रखते हैं हम

लाख हों फैली हुई मंज़िल-ब-मंज़िल ज़ुल्मतें

साथ अपने मशअ'ल-ए-हुस्न-ए-बुताँ रखते हैं हम

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