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मैं हूँ वहशत में गुम मैं तेरी दुनिया में नहीं रहता - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

मैं हूँ वहशत में गुम मैं तेरी दुनिया में नहीं रहता

मैं हूँ वहशत में गुम मैं तेरी दुनिया में नहीं रहता

बगूला रक़्स में रहता है सहरा में नहीं रहता

बड़ी मुद्दत से तेरा हुस्न दल बिन कर धड़कता है

बड़ी मुद्दत से दिल तेरी तमन्ना में नहीं रहता

ये पानी है मगर मिज़्गाँ की शाख़ों पर सुलगता है

ये मोती है मगर दामान-ए-दरिया में नहीं रहता

वो जल्वा जो सुकूत-ए-बज़्म-ए-यकताई में रहता है

वो जल्वा शोरिश-ए-पिन्हाँ-ओ-पैदा में नहीं रहता

न कोई मौज-ए-रानाई न कोई सैल-ए-ज़ेबाई

कोई तूफ़ाँ भी अब चश्म-ए-तमाशा में नहीं रहता

अजब क्या ला-मकाँ को इक नया ज़िंदाँ समझ बैठे

ये दीवाना हद-ए-इमरोज़-ओ-फ़र्दा में नहीं रहता

'ज़हीर' इक रिश्ता-ए-वहशत लिए फिरता है मजनूँ को

वगर्ना कोई अपने आप सहरा में नहीं रहता

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