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कुछ बस न चला जज़्बा-ए-ख़ुद-काम के आगे - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

कुछ बस न चला जज़्बा-ए-ख़ुद-काम के आगे

कुछ बस न चला जज़्बा-ए-ख़ुद-काम के आगे

झुकना ही पड़ा उस बुत-ए-बदनाम के आगे

इक और भी हसरत है पस-ए-हसरत-ए-दीदार

इक और भी आग़ाज़ है अंजाम के आगे

आ और इधर कोई तजल्ली की किरन फेंक

बैठे हैं गदा तेरे दर-ओ-बाम के आगे

ये इश्क़ है बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल नहीं है

कुछ और भी है कूचा-ए-असनाम के आगे

यूँ उन की जफ़ाओं से मिली हम को बसीरत

हम झुक न सके गर्दिश-ए-अय्याम के आगे

दिन ढलने लगा दिल-ज़दगाँ दिल की ख़बर लो

इक सिलसिला-ए-हिज्र भी है शाम के आगे

अब कुछ भी नहीं हासिल-ए-तदबीर-ए-मोहब्बत

अब कुछ भी नहीं नामा-ओ-पैग़ाम के आगे

इक सेहर सा तारी था 'ज़हीर' अहल-ए-ख़िरद पर

थे मोहर-ब-लब हुस्न-ए-दिल-आराम के आगे

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