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इश्क़ इक हिकायत है सरफ़रोश दुनिया की - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

इश्क़ इक हिकायत है सरफ़रोश दुनिया की

इश्क़ इक हिकायत है सरफ़रोश दुनिया की

हिज्र इक मसाफ़त है बे-निगार सहरा की

उन के रू-ब-रू निकले नुत्क़ ओ लफ़्ज़ बे-मअ'नी

बात ही अजब लेकिन ख़ामुशी ने पैदा की

वक़्त के तसलसुल में हम ब-रंग-ए-शोला थे

उम्र-ए-यक-नफ़स में भी रौशनी थे दुनिया की

हम को सहल-अँगारी ग़र्क़ कर चुकी होती

हिम्मत-आफ़रीं निकली लहर लहर दरिया की

यूँ तो वो फ़िरोकश थे जादा-ए-रग-ए-जां में

मावरा-ए-इम्काँ थी रौशनी कफ़-ए-पा की

शम-ए-महफ़िल-ए-यक-शब और तूल-ए-फ़िक्र इतना

कौन शख़्स था जिस ने आरज़ू-ए-फ़र्दा की

हम भी हैं निको-सूरत हम भी नेक-सीरत हैं

हम ने बंदगी की है इक जमाल-ए-रअना की

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