इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
पत्ता समझ के ले उड़ी वहशी हवा हमें
पत्थर बने हैं इज्ज़ बयानों के सामने
तख़्लीक़-ए-फ़न का ख़ूब मिला है सिला हमें
हम को तुलू-ए-सुब्ह-ए-बहाराँ की थी तलाश
इस जुर्म की सज़ा है ये ज़ंजीर-ए-पा हमें
ये दौर-ए-तेज़-गाम भी है उन से बे-ख़बर
वो मंज़िलें जो दे गईं अपना पता हमें
राह-ए-तलब सिमट के क़दम चूमने लगी
जब भी कोई हरीफ़-ए-सफ़र मिल गया हमें
ज़ुल्मत का दौर कुछ भी सही सत्र-पोश था
कब रौशनी ने जेब-ओ-गरेबाँ दिया हमें
पस-मंज़र-ए-बहार से हम बे-ख़बर न थे
रास आ सकी न ख़ंदा-ए-गुल की सदा हमें
हम को तो नज़्र-ए-सैल हुए उम्र हो गई
कश्ती में ढूँढता है मगर नाख़ुदा हमें
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