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इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें

इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें

पत्ता समझ के ले उड़ी वहशी हवा हमें

पत्थर बने हैं इज्ज़ बयानों के सामने

तख़्लीक़-ए-फ़न का ख़ूब मिला है सिला हमें

हम को तुलू-ए-सुब्ह-ए-बहाराँ की थी तलाश

इस जुर्म की सज़ा है ये ज़ंजीर-ए-पा हमें

ये दौर-ए-तेज़-गाम भी है उन से बे-ख़बर

वो मंज़िलें जो दे गईं अपना पता हमें

राह-ए-तलब सिमट के क़दम चूमने लगी

जब भी कोई हरीफ़-ए-सफ़र मिल गया हमें

ज़ुल्मत का दौर कुछ भी सही सत्र-पोश था

कब रौशनी ने जेब-ओ-गरेबाँ दिया हमें

पस-मंज़र-ए-बहार से हम बे-ख़बर न थे

रास आ सकी न ख़ंदा-ए-गुल की सदा हमें

हम को तो नज़्र-ए-सैल हुए उम्र हो गई

कश्ती में ढूँढता है मगर नाख़ुदा हमें

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