हर रोज़ ही इमरोज़ को फ़र्दा न करोगे
हर रोज़ ही इमरोज़ को फ़र्दा न करोगे
वा'दा ये करो फिर कभी वा'दा न करोगे
ये मान लिया अहद-ए-वफ़ा भूल चुके हो
क्या भूल के भी तुम हमें चाहा न करोगे
महफ़िल से ही उठ जाएँगे हम ऐसे क़बा-चाक
वहशत का हमारी कभी शिकवा न करोगे
अच्छा था कि जब आरिज़ा-ए-हिज्र नहीं था
अच्छा है कि अब तुम कभी अच्छा न करोगे
जिस राज़ में शामिल है हमारा भी फ़साना
उस राज़ को क्या हम पे भी इफ़्शा न करोगे
मर जाएगा दिल हसरत-ए-अनवार-ए-सहर में
बे-पर्दा अगर तुम रुख़-ए-ज़ेबा न करोगे
क्या और न था तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का बहाना
सुनते हैं कि अब तुम हमें रुस्वा न करोगे
समझो तो 'ज़हीर' उन की निगाहों के इशारे
क्या आज भी इज़हार-ए-तमन्ना न करोगे
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