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हर रोज़ ही इमरोज़ को फ़र्दा न करोगे - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

हर रोज़ ही इमरोज़ को फ़र्दा न करोगे

हर रोज़ ही इमरोज़ को फ़र्दा न करोगे

वा'दा ये करो फिर कभी वा'दा न करोगे

ये मान लिया अहद-ए-वफ़ा भूल चुके हो

क्या भूल के भी तुम हमें चाहा न करोगे

महफ़िल से ही उठ जाएँगे हम ऐसे क़बा-चाक

वहशत का हमारी कभी शिकवा न करोगे

अच्छा था कि जब आरिज़ा-ए-हिज्र नहीं था

अच्छा है कि अब तुम कभी अच्छा न करोगे

जिस राज़ में शामिल है हमारा भी फ़साना

उस राज़ को क्या हम पे भी इफ़्शा न करोगे

मर जाएगा दिल हसरत-ए-अनवार-ए-सहर में

बे-पर्दा अगर तुम रुख़-ए-ज़ेबा न करोगे

क्या और न था तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का बहाना

सुनते हैं कि अब तुम हमें रुस्वा न करोगे

समझो तो 'ज़हीर' उन की निगाहों के इशारे

क्या आज भी इज़हार-ए-तमन्ना न करोगे

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