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हमराह लुत्फ़-ए-चश्म-ए-गुरेज़ाँ भी आएगी - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

हमराह लुत्फ़-ए-चश्म-ए-गुरेज़ाँ भी आएगी

हमराह लुत्फ़-ए-चश्म-ए-गुरेज़ाँ भी आएगी

वो आएँगे तो गर्दिश-ए-दौराँ भी आएगी

निकलेगी बू-ए-ज़ुल्फ़ हमारी तलाश में

सहरा में अब हवा-ए-गुलिस्ताँ भी आएगी

वो जिन को अपने तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पे नाज़ था

आज उन को याद सोहबत-ए-याराँ भी आएगी

हम ख़ुद ही बे लिबास रहे इस ख़याल से

वहशत बढ़ी तो सू-ए-गरेबाँ भी आएगी

तय हो चुका है सूद-ओ-ज़ियाँ का मोआ'मला

ज़ख़्म आएँगे तो लज़्ज़त-ए-पैकाँ भी आएगी

ढूँढेगी सर-बरहना हमें दश्त-ए-हिज्र में

इक दिन जुनूँ में ग़ैरत-ए-जानाँ भी आएगी

ऐ रह-नवर्द-ए-इश्क़ सँभल कर क़दम बढ़ा

इस रास्ते में ज़ुल्मत-ए-हिज्राँ भी आएगी

वो बर्क़ जो हुदूद-ए-नज़र से परे रही

वो बर्क़ अब क़रीब-ए-रग-ए-जाँ भी आएगी

कट जाएगा ये कर्ब-ए-शब-ए-ग़म भी ऐ 'ज़हीर'

सुब्ह-ए-नशात-ओ-फ़स्ल-ए-निगाराँ भी आएगी

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