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फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे

फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे

चढ़े हुए हैं जो दरिया उतर ही जाएँगे

तमाम रात दर-ए-मै-कदा पे काटी है

सहर क़रीब है अब अपने घर ही जाएँगे

तू मेरे हाल-ए-परेशाँ का कुछ ख़याल न कर

जो ज़ख़्म तू ने लगाए हैं भर ही जाएँगे

मियान-दार-ओ-शबिस्तान-ए-यार बैठे हैं

जिधर इशारा-ए-दिल हो उधर ही जाएँगे

जुलूस-ए-नाज़ कभी तो इधर से गुज़रेगा

कभी तो दिल के मुक़द्दर सँवर ही जाएँगे

यही रहेगा जो अंदाज़-ए-ना-शनासाई

तुम्हारे चाहने वाले तो मर ही जाएँगे

अभी छिड़ी भी न थी दास्तान-ए-अहद-ए-वफ़ा

किसे ख़बर थी कि वो यूँ मुकर ही जाएँगे

जमाल-ए-यार की नादीदा ख़ल्वतों में 'ज़हीर'

अगर गए तो ये आशुफ़्ता-सर ही जाएँगे

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