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दिल मर चुका है अब न मसीहा बना करो - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

दिल मर चुका है अब न मसीहा बना करो

दिल मर चुका है अब न मसीहा बना करो

या हँस पड़ो या हाथ उठा कर दुआ करो

अब हुस्न के मिज़ाज से वाक़िफ़ हुआ हूँ मैं

इक भूल थी जो तुम से कहा था वफ़ा करो

दिल भी सनम-परस्त नज़र भी सनम-परस्त

किस की अदा सहो तो किसे रहनुमा करो

जिस से हुजूम-ए-ग़ैर में होती हैं चश्मकें

उस अजनबी निगाह से भी आश्ना करो

इक सोज़ इक धुआँ है पस-ए-पर्दा-ए-जमाल

तुम लाख शम-ए-बज़्म-ए-रक़ीबाँ बना करो

क़ाएम उसी की ज़ात से है रब्त-ए-ज़िंदगी

ऐ दोस्त एहतिराम-ए-दिल-ए-मुब्तला करो

तक़रीब-ए-इश्क़ है ये दम-ए-वापसीं नहीं

तुम जाओ अपना फ़र्ज़-ए-तग़ाफ़ुल अदा करो

वो बज़्म से निकाल के कहते हैं ऐ 'ज़हीर'

जाओ मगर क़रीब-ए-रग-ए-जाँ रहा करो

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