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अहल-ए-दिल मिलते नहीं अहल-ए-नज़र मिलते नहीं - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

अहल-ए-दिल मिलते नहीं अहल-ए-नज़र मिलते नहीं

अहल-ए-दिल मिलते नहीं अहल-ए-नज़र मिलते नहीं

ज़ुल्मत-ए-दौराँ में ख़ुर्शीद-ए-सहर मिलते नहीं

मंज़िलों की जुस्तुजू का तज़्किरा बे-सूद है

ढूँडने निकलो तो अब अपने ही घर मिलते नहीं

आदमी टुकड़ों की सूरत में हुआ है मुंतशिर

वहदत-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र वाले बशर मिलते नहीं

रास्ते रौशन हैं आसार-ए-सफ़र मादूम हैं

बस्तियाँ मौजूद हैं दीवार-ओ-दर मिलते नहीं

ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा दिलों में दफ़्न हो कर रह गया

आँख वालों में भी अब अहल-ए-नज़र मिलते नहीं

बढ़ गए हैं इस क़दर क़ल्ब ओ नज़र के फ़ासले

साथ हो कर हम-सफ़र से हम-सफ़र मिलते नहीं

ज़ेहन की चटयल ज़मीं से आँच आती है 'ज़हीर'

अब यहाँ एहसास के रंगीं शजर मिलते नहीं

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