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अब मिरी याद को दामन की हवाएँ देना - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

अब मिरी याद को दामन की हवाएँ देना

अब मिरी याद को दामन की हवाएँ देना

मैं गया वक़्त हूँ मुझ को न सदाएँ देना

सख़्त बे-जल्वा-ओ-बे-नूर हैं लम्हात-ए-फ़िराक़

दिल बहल जाएगा चेहरे की ज़ियाएँ देना

हिज्र की प्यास से जलते हैं बगूलों के दहन

ख़ुश्क सहराओं को ज़ुल्फ़ों की घटाएँ देना

याद आते हैं जवानी के जुनूँ-ख़ेज़ अय्याम

मुज़्तरिब हो के बयाबाँ को सदाएँ देना

फिर क़दम कू-ए-मलामत की तरफ़ उठ्ठे हैं

मिरे मौला मिरे हिस्से की ख़ताएँ देना

जामा-ज़ेबी पे तिरी वर्ना लगेगा इल्ज़ाम

इश्क़ के पैकर-ए-उर्यां को रवाएँ देना

उस का मुझ पर बड़ा एहसान-ए-मसीहाई है

मेरे यारो मिरे क़ातिल को दुआएँ देना

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