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अब है क्या लाख बदल चश्म-ए-गुरेज़ाँ की तरह - ज़हीर काश्मीरी कविता - Darsaal

अब है क्या लाख बदल चश्म-ए-गुरेज़ाँ की तरह

अब है क्या लाख बदल चश्म-ए-गुरेज़ाँ की तरह

मैं हूँ ज़िंदा तिरे टूटे हुए पैमाँ की तरह

कोई दस्तक कोई आहट न शनासा आवाज़

ख़ाक उड़ती है दर-ए-दिल पे बयाबाँ की तरह

तू मिरी ज़ात मिरी रूह मिरा हुस्न-ए-कलाम

देख अब तो न बदल गर्दिश-ए-दौराँ की तरह

मैं ने जब ग़ौर से देखा तो वो पत्थर निकला

वर्ना वो हुस्न नज़र आता था इंसाँ की तरह

अब मैं किस नाज़ पे कह दूँ कि उसे कर ले क़ुबूल

दिल तो सद-चाक है मुफ़्लिस के गरेबाँ की तरह

अभी कुछ कार-ए-मोहब्बत है मुझे दुनिया में

ज़िंदगी ख़त्म न हो सोहबत-ए-याराँ की तरह

मैं तिरी बज़्म से निकला था नज़र की की सूरत

अब न यूँ देख मुझे दीदा-ए-हैराँ की तरह

बर्क़ बन कर मिरे ख़िर्मन को जलाने वाले

तू ही बरसा था कभी अब्र-ए-बहाराँ की तरह

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